विधानमण्डल की संरचना – राज्य विधानमण्डल – State legislature
भारत एक संघ-राज्य है, इसका अर्थ यह होता है कि हमारे देश में सरकार के दो स्तर हैं। एक तो केन्द्रीय सरकार और दूसरी कई अन्य राज्य सरकारें। फिलहाल भारतीय संघ में 25 राज्य सरकारें हैं। इनमें प्रत्येक का अपना विधानमण्डल है। राज्यपाल, विधानसभा तथा विधानपरिषद को मिलाकर विधानमण्डल का गठन होता है। सभी राज्यों में विधानपरिषद की व्यवस्था नहीं है। केवल कुछ ही राज्यों में विधानसभा तथा विधानपरिषद से बनी द्विसदनीय विधानमण्डल की व्यवस्था है। अधिकांश राज्यों में सिर्फ एक सदनीय व्यवस्था है – जिसे विधानसभा के नाम से जाना जाता है। किसी राज्य में विधानपरिषद का गठन अथवा उन्मूलन करने का अधिकार संसद के पास होता है।
विधानमण्डल की संरचना –
- प्रत्येक राज्य में एक विधानसभा होती है। यह जनता द्वारा निर्वाचित सदन होता है।
- इसके सदस्य राज्य की जनता द्वारा वयस्क मताधिकार प्रणाली के तहत चुने जाते हैं।
- कुछ राज्यों में विधानपरिषद की भी व्यवस्था होती है। जिन राज्यों में द्विसदनीय व्यवस्था है। वहां विधानपरिषद ऊपरी तथा विधानसभा निचले सदन के रूप में कार्य करते हैं।
विधानसभा की संरचना –
- प्रत्येक राज्य में एक विधानसभा होती है। यह राज्य की जनता का प्रतिनिधित्व करती है।
- विधानसभा सदस्य राज्य के विभिन्न निर्वाच क्षेत्रों के जनता द्वारा वयस्क मताधिकार प्रणाली के तहत प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं।
- संविधान में विधानसभा की संख्या निर्धारित करते हुए यह वर्णन किया गया है कि सदस्यों की संख्या 500 से अधिक और 60 से कम नहीं होनी चाहिए।
- संविधान में असम, गोवा, सिक्किम तथा मिज़ोरम की विधानसभाओं के लिए विशेष संख्या निर्धारित की गई है ।
- यदि विधानसभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय का उचित प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त है तो राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह इस समुदाय के एक सदस्य को मनोनीत करे।
- कुछ सीटें अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधियों के लिए भी आरक्षित होती हैं।
- विधानसभा का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है।
- मुख्य मंत्री की सलाह पर राज्यपाल द्वारा अथवा राज्य में संवैधानिक गतिरोध पैदा हो जाने की स्थिति में राष्ट्रपति द्वारा कार्यकाल पूरा होने से पूर्व भी इसे भंग किया जा सकता है।
- आपातकाल की घोषणा होने पर अनुच्छेद 352 संसद द्वारा इसका कार्यकाल बढ़ाया भी जा सकता है। किन्तु यह अवधि एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती।
- लेकिन विधानसभा का यह कार्यकाल विस्तार आपातकाल खत्म होने के बाद छह महीने से अधिक नहीं जारी रह सकता।
विधानसभा की सदस्यता के लिए योग्यता –
- वह भारत का नागरिक हो
- 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो
- मतदाता सूची में उसका नाम दर्ज हो घ)
- किसी सरकार अथवा लाभकारी पद पर न हो
- पागल अथवा दिवालिया न हो
- विधानसभा के सदस्य अपने अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का चुनाव करते हैं अध्यक्ष सदन की अध्यक्षता करता है तथा सदन का संचालन करता है।
- अध्यक्ष की अनुपस्थिति में सदन की कार्यवाही उपाध्यक्ष संचालित करता है।
- वह अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकता है।
- अध्यक्ष सदन में अनुशासन बनाए रखता है।
- वह सदस्यों को बोलने तथा प्रश्न पूछने की आज्ञा प्रदान करता है।
- वह सदन के समक्ष विधेयक रखता है तथा उस पर मतदान से संबंधित शर्ते निर्धारित करता है।
- वह अंत में मतदान के परिणाम की घोषणा करता है।
- लेकिन उसे मतदान का अधिकार प्राप्त है। लेकिन जब मतदान का परिणाम टाई हो जाता है तब वह अपने मताधिकार का प्रयोग करता है।
- टाई का अर्थ होता है कि किसी प्रस्ताव के पक्ष और विपक्ष दोनों में मतों की संख्या बराबर हो जाती है।
विधानपरिषद की संरचना-
- विधानपरिषद को विधानमण्डल का ऊपरी सदन कहते हैं।
- किन्तु यह सभी राज्यों में स्थित नहीं है।
- कुछ राज्यों में द्विसदनीय विधानमण्डल है तथा अधिकांश में एक सदनीय जिसे विधानसभा कहते हैं। फिलहाल केवल छ: राज्यों – उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर में ही विधानपरिषदें हैं |
- बाकी सभी राज्यों में राज्यों में सिर्फ एक सदनीय व्यवस्था है – विधानसभा |
- संसद को यह अधिकार प्राप्त है कि वह बहुमत से आधार पर प्रस्ताव पारित कर किसी भी राज्य में विधानपरिषद का गठन अथवा उन्मूलन कर सकती है।
- वह बहुमत उसका कुल सदस्य संख्या के दो-तिहाई से कम नही होना चाहिए।
- संसद यह कार्य संबंधित राज्य के विधानसभा के निवेदन पर निष्पादित कर सकती है।
- विधानपरिषद का आकार उस राज्य के विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के आधार पर निर्धारित किया जाता है।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 171 में यह निश्चित किया गया है किसी भी राज्य में विधानपरिषद के सदस्यों की संख्या उसके विधानसभा सदस्यों की संख्या के एक-तिहाई से अधिक नहीं होनी चाहिए |
- यह संख्या 40 से कम भी नहीं होनी चाहिए।
- विधानपरिषद के सदस्यों का कुछ हिस्सा निर्वाचित तथा कुछ मनोनीत होता है।
- विधानपरिषद के सदस्यों का चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर एकल हस्तांतरणीय निर्वाचन पद्धति द्वारा होता है।
- इसका संगठन निम्नलिखित तरीकों से होता है –
- विधानपरिषद के कुल सदस्य संख्या का एक-तिहाई भाग राज्य की नगरपालिकाओं, जिला बोर्डो तथा अन्य स्थानीय निकायों के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता है।
- कुल संख्या का बारहवां भाग राज्य के स्नातकों द्वारा चुना जाता है।
- कुल संख्या का एक अन्य बारहवां भाग प्राथमिक विद्यालयों, कालेजों तथा विश्वविद्यालयों के अध्यापकों द्वारा जिन्हें कम से कम तीन साल का अध्ययन अनुभव प्राप्त हो, चुना जाता है।
- एक-तिहाई भाग राज्य विधानसभा के सदस्यों द्वारा चुना जाता है लेकिन एक ही व्यक्ति दोनों सदन का सदस्य नहीं हो सकता |
- शेष छठा भाग राज्यपाल द्वारा साहित्य, कला, विज्ञान तथा अन्य सामाजिक एवं सहयोगी संगठनों के विशेषज्ञ तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से मनोनीत किए जाते हैं।
- राज्यसभा की तरह विधानपरिषद भी एक स्थाई सदन होता है। यह कभी भंग नहीं होता। इसके निर्वाचित तथा मनोनीत सदस्यों का कार्यकाल छह वर्ष होता है।
- इसके एक तिहाई सदस्य हर दो साल बाद अवकाश ग्रहण कर लेते हैं अवकाश प्राप्त सदस्य पुनः चुनाव लड़ सकते हैं।
- किसी सदस्य के त्यागपत्र, मृत्यु अथवा अन्य कारणों से स्थान रिक्त होने पर शेष अवधि के लिए मध्यावधि चुनाव कराए जा सकते हैं।
विधानपरिषद की सदस्यता के लिए योग्यताएँ –
- भारत का नागरिक हो
- 30 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो
- मतदाता सूची में उसका नाम हो
- पागल अथवा दिवालिया न हो
- किसी सरकारी अथवा लाभकारी पद पर न हो
- संविधान द्वारा निर्धारित अन्य कानूनों का उसे ज्ञान हो
- विधानपरिषद की समस्त कार्यवाहियां परिषद द्वारा निर्वाचित सभापति के निर्देशन में संपन्न होती हैं।
- सभापति सदन की अध्यक्षता करता है तथा सदन में अनुशासन एवं व्यवस्था बनाए रखता है।
- वह अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकता है।
- उसकी अनुपस्थिति में उपसभापति सदन की अध्यक्षता करता है।
- उपसभापति का चुनाव भी परिषद के सदस्य ही करते हैं।
- विधानमण्डल की बैठकें साल में कम से कम दो बार अनिवार्य रूप से होनी चाहिए तथा इन बैठकों के बीच छह महीने से अधिक का अंतराल नहीं होना चहिए।
- राज्यपाल विधानमण्डल के सत्र के लिए स्थगन आदेश जारी कर सकता है।
- चुनाव के बाद पहले सत्र की बैठक होती है अथवा वर्ष की पहली बैठक होती है तब वह विधानसभा अथवा दोनों सदनों (यदि द्विसदनीय विधानमण्डल है) को संबोधित करता है।
- वह अपने संबोधन में विधानमण्डल में तय की जाने वाली नीतियों की रूपरेखा तथा होने वाली बहसों के आदर्श रूप का निर्देश देता है।
विधानमण्डल के कार्य तथा शक्तियां –
कानून बनाने संबंधी कार्य –
- संसद की तरह ही राज्य विधानमण्डल का भी प्राथमिक कार्य कानून बनाना होता है।
- विधानमण्डल को राज्य तथा समवर्ती सूची में वर्णित किसी भी विषय पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है।
- विधेयक को कानून बनने से पूर्व विधानमण्डल के समक्ष तर्क के लिए प्रस्तुत किया जाना आवश्यक होता है।
- विधेयक दो प्रकार के होते हैं – साधारण विधेयक तथा वित्त विधेयक ।
- साधारण विधेयक किसी भी सदन में रखा जा सकता है।
- वित्त विधेयक को सबसे पहले विधानसभा में रखा जाता है और जब विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया जाता है तब उसे स्वीकृति के लिए राज्यपाल के पास भेज दिया जाता है।
- राज्यपाल किसी भी विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है।
- यदि वह विधेयक पुन: पारित करके राज्यपाल के पास भेज दिया जाता है तब राज्यपाल उस पर अपनी स्वीकृति के लिए बाध्य होता है।
- यह कानून निर्माण संबंधी प्रक्रिया भी केन्द्रीय विधायिका के समान ही होती है |
- राज्यपाल भी अध्यादेश जारी कर सकता है और इसका पालन भी कानून की तरह ही किया जाता है किंतु तभी तक जब तक कि ये अस्तित्व में होते हैं।
- अध्यादेश तभी तक अस्तित्व में बने रहते हैं जब तक कि विधानसभा की बैठक नहीं हो जाती।
- विधानसभा अपने सत्र गठन के छह सप्ताह के भीतर किसी भी अध्यादेश को कानून में बदल सकती है।
- विधानसभा की बैठक के छह सप्ताह बाद यह स्वत समाप्त भी हो जाता है।
- कार्यपालिका की संस्तुति के पूर्व ही सरकार चाहे तो इसे वापस भी लें सकती है।
वित्तीय शक्तियां –
- राज्य के वित्तीय मामलों में राज्य विधायिका का पूरा नियंत्रण होता है।
- वित्त विधेयक सबसे पहले विधानसभा के सामने रखा जाता है।
- इन विधेयकों में सरकार द्वारा व्यय किए जाने वाले धन की प्रतिवेदन, करों के लागू किए जाने अथवा हटाए जाने संबंधी प्रस्ताव, ऋण संबंधी प्रस्ताव आदि आते हैं।
- ये विधेयक संबंधित मंत्री द्वारा राज्यपाल की संस्तुति पर लागू किए जाते हैं।
- वित्त विधेयक किसी गैर सरकारी व्यक्ति द्वारा नहीं रखे जा सकते।
- विधानसभा अध्यक्ष इस बात की पुष्टि करता है कि संबंधित विधेयक वित्त विधेयक है अथवा नहीं।
- कोई भी वित्त विधेयक विधानसभा द्वारा पारित हो जाने के बाद विधानपरिषद के पास स्वीकृत के लिए भेज दिया जाता है।
- विधानपरिषद को 14 दिन के अंदर इसे अपनी स्वीकृति के साथ लौटाना होता है।
- विधानसभा को यह अधिकार होता है कि वह विधानपरिषद के सुझावों को स्वीकार करे या न करे।
- बाद में विधेयक को राज्यपाल के पास संस्तुति के लिए भेजा जाता है।
- राज्यपाल इसपर अपनी संस्तुति से इनकार नहीं कर सकता।
3. कार्यपालिका पर नियंत्रण –
- मुख्यमंत्री तथा अन्य मंत्री राज्य विधायिका के सदस्य होते हैं।
- यदि कोई व्यक्ति इसका सदस्य नहीं है और उसे मंत्री बना दिया गया है तो उसे छह महीने के अंदर विधायिका का सदस्य बनना पड़ेगा |
- मंत्रिपरिषद पूरी तरह विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होती है तथा वह अपने अधिकार एवं शक्तियों का प्रयोग तभी कर सकता है जब तक कि विधानसभा अस्तित्व में है।
- विधानसभा कोई भी कानून सरकार के खिलाफ पारित कर देती है तो उसे समाप्त कर दिया जाता है |
- किसी सरकारी अथवा वित्त विधेयक को विधानमण्डल की सहमति से ही खारिज किया जा सकता है।
4. चुनाव संबंधी कार्य –
- विधानसभा के सदस्य एक प्रकार से भारत में होने वाले राष्ट्रपति के चुनाव प्रक्रिया के भी सदस्य होते हैं।
- भारत गणतंत्र के राष्ट्रपति के चुनाव में अपनी हिस्सेदारी निभाते हैं।
- वे राज्यसभा के साथ-साथ विधानपरिषद के एक-तिहाई सदस्यों का भी चुनाव करते हैं |
संवैधानिक कार्य –
- तीसरी प्रविधि के आधार पर हमारा संविधान एक कठोर संविधान है किंतु एक विशेष बहुमत के आधार पर इसमें संशोधन किए जा सकते हैं।
- इसके लिए संसद के दोनों सदनों के बहुमत एवं आधे से अधिक राज्यों के अभिसमर्थन से संविधान में संशोधन किए जा सकते हैं।
- संविधान में संशोधन के लिए अभिसमर्थन विधानमण्डलों द्वारा साधारण बहुमत से पारित किए जाते हैं।
- विधानमण्डल के अभिसमर्थन के बिना संविधान में किसी प्रकार संशोधन संभव नहीं है।
विधानमण्डल की विधायी शक्तियों की सीमाएं –
- विधानमण्डल समवर्ती सूची में वर्णित किसी भी विषय पर कानून बनाने के लिए स्वतंत्र है।
- यदि संसद द्वारा पारित किसी कानून के खिलाफ विधानमण्डल द्वारा कोई कानून पारित किया जाता है तो उसे लागू नहीं किया जाता |
- आपातकाल की घोषणा (अनुच्छेद 352) के बाद संसद को यह अधिकार प्राप्त है कि वह राज्य सूची में वर्णित किसी भी विषय पर कानून बना सकती है।
- संवैधानिक तंत्र के दो-तिहाई बहुमत और दो या दो से अधिक राज्यों की सहमति पर संसद राज्य सूची के किसी भी मुद्दे पर कानून बना सकती है।
- मौलिक अधिकारों के मामले में भी विधानमण्डल की शक्तियों को सीमित किया गया है।
- विधानमण्डल कोई भी ऐसा कानून नहीं बना सकता जो नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो ।
- यदि विधानमण्डल द्वारा बनाया गया कोई भी कानून असंवैधानिक हो अथवा उससे नागरिक अधिकारों का उल्लंघन होता हो तो उसे उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय खारिज कर सकता है।
विधानमण्डल के दोनों सदनों की तुलना –
- लोकसभा की तरह विधानसभा ने भी अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है।
- विधानपरिषद विधानसभा की तुलना में कम शक्तियों का प्रयोग कर पाता है।
- राज्यसभा वित्त विधेयक को छोड़कर अन्य विधेयक संबंधी मामलों में समान शक्तियों का प्रयोग करती है।
- जबकि विधानपरिषद राज्यसभा की तुलना में कम शक्तियों का प्रयोग कर पाती है।
विधानसभा तथा विधानपरिषद के तुलनात्मक संबंध निम्नलिखित हैं :
साधारण विधेयक के संबंध में संसद में
- यदि किसी साधारण विधेयक पर दोनों सदनों के बीच मतभेद है तो राष्ट्रपति दोनों सदनों को सूचना भेजकर संयुक्त बैठक बुलाता है और दोनों सदनों के संयुक्त मतदान के द्वारा बहुमत के आधार पर वह विधेयक पारित कर दिया जाता है।
- साधारण विधेयक किसी भी सदन द्वारा रखा जा सकता है किन्तु दोनों सदनों की शक्तियों में असमानता है। यदि विधानसभा में कोई विधेयक पारित होता है तो उसे संस्तुति के लिए विधानपरिषद के पास भेजा जाता है। विधानपरिषद उसमें बिना किसी संशोधन के उस विधेयक को राज्यपाल के पास स्वीकृति के लिए भेज देती है।
(क) परिषद द्वारा वापस भेज दिया जाता है
(ख) अथवा तीन महीने से अधिक रोक लिया जाता है तो उसे परिषद द्वारा स्वीकृत मान लिया जाता है।
(ग) विधानसभा उसमें सुधार करके विधानसभा के सत्र के शुरू में अथवा उसी सत्र में उसे पारित कर देती है।
वह विधेयक पुनः विधानपरिषद के पास भेज दिया जाता है और यदि परिषद एक महीने के अंदर उस विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर वापस नहीं भेज देता तो वह विधेयक विधानमण्डल के दोनों सदनों द्वारा पारित मान लिया जाता है और उसे राज्यपाल के पास स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। विधानपरिषद किसी भी विधेयक को अधिकतम चार महीने तक रोक सकता है।
वित्त विधेयक के संबंध में –
- लोकसभा की तरह कोई भी वित्त विधेयक सबसे पहले विधानसभा में रखा जाता है।
- लोकसभा अध्यक्ष की तरह ही विधानसभा अध्यक्ष यह प्रमाणित करता है कि कोई भी विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं।
- यदि विधानसभा द्वारा यह विधेयक पारित कर दिया जाता है तब इसे विधानपरिषद के पास भेज दिया जाता है।
- यदि यह विधेयक विधानपरिषद द्वारा 14 दिन के अंदर स्वीकृत होकर नहीं आता तो उसे स्वीकृत मान लिया जाता है।
- यदि विधानपरिषद उसमें किसी संशोधन के लिए वापस भेजता है तो यह विधानसभा के ऊपर निर्भर करता है कि वह उसके सुधार संबंधी सुझावों को स्वीकार करे या नहीं।
- वह विधेयक राज्यपाल के पास स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है और राज्यपाल उस पर स्वीकृति के लिए बाध्य होता है।
कार्यपालिका पर नियंत्रण –
- मंत्रि परिषद विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होती है और वह तभी तक अपने अधिकार तथा शक्तियों का प्रयोग कर सकती है जब तक कि विधानसभा का अस्तित्व है।
- विधानपरिषद के सदस्य प्रश्न पूछ सकते हैं, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रख सकते हैं किन्तु विधानपरिषद सरकार के ऊपर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगा सकती।
मतदान संबंधी अधिकार –
- विधानसभा के केवल निर्वाचित सदस्य ही राष्ट्रपति के चुनाव में भाग ले सकते हैं।
- विधानसभा के सभी सदस्य एक चुनाव परिषद के सदस्य होने के नाते इस मताधिकार का प्रयोग कर सकते हैं।
- विधानपरिषद के सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में भाग नहीं ले सकते।
निष्कर्ष
- विधानपरिषद को कम शक्तियां प्राप्त है तथा वह द्वितीय सदन के रूप में कार्य करता है। किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि विधानपरिषद की शक्तियों को नजरअंदाज किया जा सकता है। विधानसभा द्वारा हड़बड़ी में पारित कर दिए गए किसी विधेयक के कमज़ोर पक्षों की ओर यह ध्यान दिलाता है।
- विधानसभा की व्यस्तताओं को थोड़ा कम करने के लिए कुछ विधेयकों पर परिषद की पहल करती है। इसके कुछ सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं तथा कुछ मनोनीत किए जाते हैं। विधानपरिषद का अपने क्षेत्रों की विशेषज्ञता और अनुभव के कारण कानून बनाने तथा कार्यपालिका पर नियंत्रण रखने में बहुत सहायता प्राप्त होती है। साधारणतया विधानपरिषद में प्रतिष्ठित, उच्च योग्यता वाले तथा अलग- अलग रुचियों के प्रतिनिधि होते हैं।
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