IGNOU MPS-003 भारत: लोकतंत्र एवं विकास Q.12 HINDI MEDIUM
प्रश्न 12 – भारत में धार्मिक राजनीति के क्रमतर विकास और इसके परिणामों का वर्णन कीजिए ।
अथवा
भारत में धार्मिक राजनीति के विकास का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए ।
उत्तर – परिचय
भारत में धार्मिक राजनीति की अवधारणा धर्म और राजनीति से संबंधित है। मुख्य रूप से इसमें धर्म, संस्कृति, परम्पराएं, आधुनिकता, राष्ट्र और मानव संबंध इत्यादि की अवधारणाएँ शामिल होती हैं। ईसा पूर्व छठी शताब्दी के पहले से ही भारत मे धार्मिक राजनीति का चलन रहा है। धार्मिक राजनीति का इतिहास बहुत लम्बा है। यह देखा जा सकता है कि जो भी विदेशी लोग भारत में आकर बसे उन मे से ज्यादातर लोगो ने भारतीय धर्म, संस्कृति और यहाँ की सभ्यता को अपना बना लिया ।
भारत में धार्मिक राजनीति के विकास में योगदान देनेवाले प्रमुख विद्वान:-
राजा राममोहन राय, विवेकानन्द, बंकिमचन्द्र चटर्जी एवं बालगंगाधर तिलक इत्यादि ।
भारत में धार्मिक राजनीति के क्रमतर विकास और इसके परिणाम
18 वी शताब्दी में यूरोप मे एक नयी बौद्धिक लहर चल रही थी, जिसके कारण एक जागृति का आरंभ हुआ । तर्कवाद तथा खोज की भावना ने पूरे यूरोपीय समाज को एक प्रगति प्रदान की थी। विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने सभी पक्षों को प्रभावित किया जैसे – राजनीतिक, सैनिक,आर्थिक, धार्मिक, अब यूरोप सभ्यता का अधिनायक (नेता) leader महाद्वीप बन गया है। जबकि भारत इसके विपरीत दिख रहा था वह गतिहीन , निर्जीव समाज का चित्र प्रस्तुत कर रहा था । भारत का एक ऐसे घुसपैठिये से सामना हुआ जो खुद को सामाजिक,धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ समझता था ।
ब्रिटिश शासन आने के बाद ऐसा लगा कि जैसे भारत पश्चिमी विचारों और मूल्यों से पूरी तरह से पराजित हो जाएगा, क्योंकि भारत के वासियों ने पाश्चात्य सभ्यता के प्रति अपनी प्रतिक्रिया अलग – अलग रूप से व्यक्त की थी भारत में दो तरह के लोग थे एक ओर तो ‘पुरानी परम्परा के लोग, तो दूसरी तरफ बंगाली अतिवादी थे जो पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति, सामाजिक मूल्यों, इसाई धर्म के प्रति गहरी श्रद्धा रखते थे परन्तु पुरानी परम्परा को मानने वाले लोग जिनमे राजे राजवाड़े और धार्मिक कटरपंथी थे जो पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति तथा अंग्रेजी नीतियों को केवल घृणा की दृष्टि से देखते थे इसी समय राजा राममोहन राय ने पूर्व और पश्चिम के उत्तम तत्वों को एकीकृत करके भारतीय धर्म को एक नया जीवन प्रदान किया उस समय भारत में सांस्कृतिक और बौद्धिक लहर चल रही थी। असल मे ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार तथा उसके साथ औपनिवेशिक संस्कृति कि विचारधारा के प्रचार-प्रसार से यह लहर उठनी शुरू हुई थी पश्चिमी संस्कृति के इस फैलाव ने भारतवासियों के लिए एक गंभीर विषय पैदा कर दिया की वे एकबार अपनी संस्कृति और संस्थाओ की कमियों का निरिक्षण करे हालाँकि औपनिवेशिक संस्कृति और विचारधारा के खिलाफ यह प्रतिक्रिया हर समाज मे अलग-अलग थी लेकिन एक बात सभी जगह महसूस की गई की भारतीय समाज मे सामाजिक – धार्मिक सुधार अब जरूरी है।
नवजागरण
- नवजागरण का अर्थ विद्या, कला, विज्ञान, साहित्य और भाषाओं के विकास से लगाया जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में एक ऐसी नवीन चेतना का उदय हुआ, जिसने देश के सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक जीवन को नवचेतना एवं नवजागरण प्रदान किया, जिसे भारतीय नवजागरण या पुनर्जागरण (Renaissance) के नाम से पुकारते हैं।
- उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में एक ऐसी नवीन चेतना का उदय हुआ, जिसने देश की सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक जीवन को नवचेतना एवं नवजागरण प्रदान किया,
- 1828 में राजा राममोहन राय ने बंगाल में ब्रह्म समाज की स्थापना करके सुधार लाने की प्रक्रिया शुरू की। फिर धीरे – धीरे पूरे भारत मे सुधार की लहर फैलती चली गई। इनका ज्यादा जोर धार्मिक सुधारों की तरफ ही था परन्तु आन्दोलन का चरित्र धार्मिक नहीं था बल्कि इनका दृष्टिकोण विश्ववादी था राजा राममोहन राय का मानना था की विभिन्न धर्म दरअसल एक विश्व्यापी इश्विर की ही अलग – अलग अभिव्याक्ति है।
- राजा राम मोहन राय का पहला प्रकाशन तुहफ़ात-उल-मुवाहिदीन (देवताओं को एक उपहार) वर्ष 1803 में सामने आया था जिसमें हिंदुओं के तर्कहीन धार्मिक विश्वासों और भ्रष्ट प्रथाओं को उजागर किया गया था।
- वर्ष 1814 में उन्होंने मूर्ति पूजा, जातिगत कठोरता, निरर्थक अनुष्ठानों और अन्य सामाजिक बुराइयों का विरोध करने के लिये कलकत्ता में आत्मीय सभा की स्थापना की।
विवेकानन्द
विवेकानंद 19 वीं शताब्दी के सर्वाधिक प्रभावशाली विचारकों में से एक थे। वे भारत में सामाजिक ऊँच-नीच तथा धार्मिक विषमताओं के आलोचक थे। उन्होंने व्यक्तिगत नैतिकता तथा सामाजिक परिवर्तन पर जोर डाला। उनके अनुसार किसी राष्ट्र की महानता उसकी जनता पर निर्भर करती है, राज्य पर नही तथा व्यक्तियों की महानता और उनका व्यवहार धर्म द्वारा ढलता है। विवेकानंद के विचारों ने भारत में आध्यात्मिक चेतना को जगाया। उन्होंने रेखांकित किया कि एक सांस्कृतिक क्रान्ति भारत में फिर से परमांनद की स्थिति में ला सकती है। उन्होंने भारतीयों, विशेषकर नवयुवकों को, अंग्रेजों के विरुद्ध राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने का आहवान किया। उन्होंने सुधार बनाम विकास व सेवा पर आधारित एक दिलचस्प तर्क प्रस्तुत किया। उन्होंने घोषणा की, कि “मैं सुधार में विश्वास नहीं रखता मैं विकास में विश्वास रखता हूँ।
निष्कर्ष
इस प्रकार 19वी सदी के सांस्कृतिक – वैचारिक संघर्ष ने धर्म के मजबूत शिकंजे से लोगो की व्यक्तिगत स्वतंत्रता वापस दिलाई और लोगो को सामाजिक सुधार का रास्ता दिखाया । तो दूसरी ओर ब्रिटिश हुकूमत ने फूट डालो नीति को अपनाकर बंटवारा करना शुरू किया।
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