IGNOU MPS-003 भारत: लोकतंत्र एवं विकास Q.9 HINDI MEDIUM
प्रश्न 9 – भारत में क्षेत्रवाद की परिघटना का परीक्षण कीजिए।
उत्तर – परिचय
क्षेत्रवाद: क्षेत्रवाद से तात्पर्य है एक देश में या देश के किसी भाग में उस छोटे से क्षेत्र से है जो आर्थिक, भौगोलिक, सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक अस्तित्व के लिए जागरूक है। साधारण शब्दों में क्षेत्रवाद का अर्थ किसी क्षेत्र के लोगों की उस भावना एवं प्रयत्नों से है जिनके द्वारा वे अपने क्षेत्र विशेष के लिए आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक शक्तियों में वृद्धि चाहते हैं।
विभिन्न विचारको द्वारा क्षेत्रवाद की परिभाषा:
हेडविग हिंट्ज के अनुसार – “क्षेत्रवाद किसी क्षेत्र विशेष के व्यक्तियों के विशेष अनुराग और पक्षपातपूर्ण धारणाओं से जुड़ा होता है।“
बोगार्डस के अनुसार – “कोई भी भौगोलिक क्षेत्र, जिसके आर्थिक संसाधन वहां रहने वाले लोगों के प्रति सामान्य सामुदायिक हितों के विकास के लिए एक अलग अर्थव्यवस्था के निर्माण का आधार प्रदान करते हैं, उन निवासियों में क्षेत्रवाद की भावना आ जाती है।“
आर.सी. पाण्डेय के अनुसार – “हिन्दी बोलने वाले क्षेत्र या न बोलने वाले क्षेत्रों में विरोध और इसके अतिरिक्त अन्य घटनाएँ क्षेत्रवाद है।”
भारत में क्षेत्रवाद की परिघटना:
- राज्य के लोगों के हितों की रक्षा के लिए आन्दोलन:
कई बार क्षेत्रीय आन्दोलन राज्य के लोगों के हितों की रक्षा के लिए किए जाते हैं। असम आन्दोलन इस तरह का ही था। असम आन्दोलन 1979 से लेकर 1985 तक चला। यह आन्दोलन असम में विदेशियों की समस्या को लेकर चलाया गया, क्योंकि असमिया मूल के लोगों में यह आशंका घर कर चुकी थी कि वे अल्पसंख्यक बन जाएगे क्योंकि बंग्लादेश से आकर लाखों लोग असम में बसते जा रहे थे।
- इस आन्दोलन को छात्रों ने आल असम स्टूडैण्ट्स यूनियन नामक संगठन के तहत चलाया। आन्दोलनकारियों ने मांग की कि चुनाव करवाने से पहले विदेशियों की समस्या को हल किया जाए और विदेशियों के नाम मतदाता सूची से निकाले जाऐ । केन्द्र सरकार ने आन्दोलनकारियों के साथ कई बार बातचीत की, पर विवाद को लटकाए रखा। फरवरी, 1993 में असम में चुनाव करवाने का प्रयास किया गया जिसमें बहुत बड़ी लोकसभा चुनाव असम में नहीं हुए। समस्या को हल करने के लिए प्रयास किए और अन्त में 15 अगस्त, 1985 को असम समझौता हुआ।
- दिसम्बर, 1985 में असम विधानसभा के चुनाव हुए। चुनाव लड़ने के लिए छात्रों और अन्य आन्दोलनकारियों ने असम गण परिषद् की स्थापना की। असम गण परिषद् को चुनाव में बहुमत प्राप्त हुआ और प्रफुल्ल कुमार महंत मुख्यमंत्री बने असम आन्दोलन इन्हीं के नेतृत्व में चलाया गया था। असम गण परिषद् की सरकार समझौते को लागू करने के लिए वचनबद्ध रही। इस समझौते की मुख्य बातें हैं । “1966 से 1971 के बीच आए विदेशियों को पहचानना और उनके नाम मतदाता सूची से 10 वर्ष के लिए हटवाना तथा 1971 के बाद विदेशियों को बाहर निकालना।”
- झारखण्ड आन्दोलन:
झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और मध्यप्रदेश के 21 जिलों को मिलाकर झारखण्ड राज्य की स्थापना की मांग की। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने 4-5 वर्षो में कई बार जोरों से आन्दोलन चलाए। झारखण्ड नेताओं ने 15 सितम्बर, 1992 को झारखण्ड बन्द और 18 से 30 सितम्बर तक बिहार में आर्थिक नाकेबन्दी का आहवान किया। 15 मार्च 1993 को झारखण्ड बन्द किया गया और 16 मार्च से आर्थिक नाकेबन्दी को 20 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने समस्या के निदान हेतु द्विपक्षीय बैठक बुलाने के आश्वासन के बाद स्थगित कर चले पर दिया।
- 17 मार्च 1994 का अखिल झारखण्ड विद्यार्थी संघ व झारखण्ड पीपुल्स पार्टी के आहवान प 48 घंटे के बन्द के दौरान कई जगहों पर हिंसक वारदातें भी हुई। 22 सितम्बर, 1994 को केन्द्र सरकार ने बिहार सरकार व झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के साथ मिलकर किया, जिसके अन्तर्गत झारखण्ड के विकास के लिए एक स्वायत्तशाही विकास परिषद् की स्थापना की गयी। इस परिषद् में 100 सदस्य होंगे जिनमें से 90 सदस्य निर्वाचित और मनोनीत थे। परन्तु इन व्यवस्थाओं के बावजूद भी झारखण्ड आन्दोलन चलता रहा। केन्द्र सरकार ने झारखण्ड वालों की बात मानते हुए, नवम्बर 2000 में झारखण्ड नाम का एक नया राज्य बना दिया।
- पूर्ण राज्यत्व को प्राप्त करने की मांग:
क्षेत्रीयता की समस्या का तीसरा रूप पूर्ण राज्यत्व की मांग है। संविधान में 14वां संशोधन 1962 में किया गया था, जिसके अनुसार हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, पाण्डिचेरी तथा गोवा में विधानमण्डल की स्थापना की गई। हिमाचल प्रदेश के लोग बड़ी देर से हिमाचल को पूर्ण राज्य बनाने की कर रहे थे, अतः 31 जुलाई 1970 को हिमाचल को पूर्ण राज्य घोषित कर दिया गया। 1970 में दिल्ली की मेट्रोपोलिटन परिषद् (Metropolitan Council) ने दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाए जाने की मांग की, परन्तु केन्द्रीय सरकार ने इस मांग का दृष्टिगत रखते हुए संविधान में 69वें संशोधन अधिनियम द्वारा दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र घोषित किया जिसमें एक विधान सभा की व्यवस्था की गई है। नवम्बर, 1993 में इसके चुनाव हुए और मदन लाल खुराना पहले मुख्यमंत्री बने। 1972 में मणिपुरा तथा त्रिपुरा भी पूर्ण राज्य बना दिए गए। दिसम्बर, 1986 में गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के लिए आन्दोलन शुरू हुआ और संसद ने मई 1987 में गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का बिल पास किया।
निष्कर्ष
क्षेत्रीयवाद का भारतीय राजनीति की शैली पर काफी प्रभाव पड़ा तथा आन्दोलनात्मक राजनीति को बढ़ावा मिला। क्षेत्रीय आन्दोलनों को चलाने के लिए आर्थिक विषमता, धर्म, जाति और भाषा का सहारा लिया गया। क्षेत्रीयता की समस्या आज भारत की राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बड़ी बाधा है। अतः हमें संघर्षात्मक प्रादेशिकता की भावना को समाप्त कर उदार सहयोगी प्रादेशिकता की भावना के प्रसार की आवश्यकता है।
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