दीघनिकाय में बुद्ध द्वारा वर्णित राजसत्ता के सिद्धांत का विवेचन कीजिए |
प्रश्न. 6 – दीघनिकाय में बुद्ध द्वारा वर्णित राजसत्ता के सिद्धांत का विवेचन कीजिए |
उत्तर –
परिचय – अगाना सूत बौद्ध साहित्य का एक भाग है जो दीघा संकाय नामक संकरण से लिया गया है, जिसका वर्णन दीघा संकाय के 27 वें संस्करण में किया गया है, जिसमे बुद्ध द्वारा दो ब्राह्मणों, भारद्वाज और वशिष्ठ द्वारा संकलित एक प्रवचन का वर्णन किया गया है, जो अपने परिवार और जाति को भिक्षु बनने के लिए छोड़ देते हैं। संघ के सदस्य बनने के इरादे से इन दो ब्राह्मणों ने अपनी ही जाति का अपमान किया। इसमें बुद्ध बताते है की जाति और वंश की तुलना नैतिकता और धम्म की उपलब्धि से नहीं की जा सकती है, क्योंकि किसी भी जाति में से कोई भी साधु बन सकता है और अरहंत की स्थिति तक पहुँच सकता है।
बुद्ध को ‘गौतम बुद्ध‘, ‘महात्मा बुद्ध‘ आदि नामों से जाना जाता है। वे संसार प्रसिद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक माने जाते हैं। बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। आज बुद्ध संसार के चार बड़े धर्मों में से एक है। इसके अनुयायियों की संख्या दिन-प्रतिदिन आज भी बढ़ रही है। बुद्ध के अनुसार मनुष्य जिन दुखों से पीड़ित है, उनमें बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे दु:खों का है, जिन्हें मनुष्य ने अपने अज्ञान, गलत ज्ञान या मिथ्या दृष्टियों से पैदा कर लिया है, उन दुःखों का समाधान अपने सही ज्ञान द्वारा ही सम्भव है, किसी के आशीर्वाद या वरदान से उन्हें दूर नहीं किया जा सकता। सत्य या यर्थाथता का ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है। अतः सत्य की खोज मोक्ष के लिए परमावश्यक है। खोज अज्ञात सत्य की ही सम्भव है। यदि सत्य किसी शास्त्र, आगम या उपदेशक द्वारा ज्ञात हो गया है तो उसकी खोज का लाभ नहीं है।
बुद्ध ने अपने पूर्ववर्ती लोगों द्वारा या परम्परा द्वारा बताए सत्य को नकार दिया और अपने लिए नए सिरे से उसकी खोज की। बुद्ध स्वयं कहीं प्रतिबद्ध नहीं हुए और न ही अपने शिष्यों को उन्होंने कहीं बांधा। उन्होंने कहा कि मेरी बात को इसलिए चुपचाप न मान लो कि इसे बुद्ध ने कहा है, बल्कि उस पर भी सन्देह करो और विविध परीक्षाओं द्वारा उसकी परीक्षा करो। जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से मिलान करो, यदि तुम्हें सही लगे तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो।
दीघ निकाय एक संवाद-संग्रह है जो अधिकांशतः बुद्ध के खुद के संवाद हैं और वे अनेक आरम्भिक शिष्यों को 186 विवादास्पद विमर्श की श्रृंखला के रूप से प्राप्त हुए, जो राइस डेविड्स के अनुसार मानव चितंन के इतिहास में प्लेटो के संवाद जितना ही महत्व रखने वाला है। उसका प्रथम संवाद जो ब्रह्म जाल कहलाता है अर्थात् पूर्ण जाल है जिसकी जाली इतनी अच्छी है कि कोई भी मूर्खता या अंधविश्वास चाहे कितना भी सूक्ष्म क्यों न हो, बच नहीं सकता। इनमें 62 संकल्पनायें है।
सुत्त पिटक या विमर्श की टोकरी में चार महान निकाय या संग्रह हैं जिनमें से प्रथम दो एक पुस्तक की रचना करते हैं। यह दो भाग में है जो दीघ और मज्झिम अर्थात् लम्बे और मध्यम लम्बे या लम्बे और लघु कहलाते हैं। बुद्ध के संवाद जिसमें बुद्ध अपने शिष्यों के साथ वार्तालाप में मुख्य संवादक” होते थे, को विस्तार के साथ व्यवस्थित किया गया है। इनमें से सबसे पहले बौद्ध विद्वानों द्वारा चर्चा में लाया गया आरम्भिक संवाद अग्गन्न सुत्त है जो दीघ निकाय की 27 वीं संख्या है।
बुद्ध द्वारा वर्णित राजसत्ता का सिद्धांत
बौद्धवादी राज्य में कल्याणकारी राज्य होना चाहिये जिसका कर्त्तव्य कमजोर तथा बेसहारा (असहाय) की रक्षा होनी चाहिये। चक्र कोई पैतृक विरासत नहीं है बल्कि यह प्रत्येक राजा के द्वारा अपने अच्छे कार्य और कर्त्तव्य से जीता जा सकता है जो वैदिक सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिये दण्ड को न्यायोचित ठहराता है जबकि बौद्धवाद दण्ड को एक न्यायोचित सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिए उचित ठहराता है। महासुदस्सन सुत्त राज्य पर राजा के भौतिक नियंत्रण के साधन के रूप में हाथी और अश्व खजाने का उल्लेख करता है। शक्तिशाली अद्भुत तथा बहुमूल्य सम्पदा जैसे विभिन्न विशेषण राजा के इन दोनों खजानों का उल्लेख करते हैं। ये राजा के द्वारा प्रशिक्षित व नियंत्रित होते हैं और सदैव राजा की सेवा में उपस्थित रहते हैं। इन बहुमूल्य खजानों के लिये जादुई मूल्य बताये जाते हैं जो रोग, भूख तथा राक्षस आदि के विरुद्ध मुकाबला करने की शक्ति के रूप में देखे जाते हैं।
इत्थी रत्न या स्त्री खजाना आदर्श रानी का द्योतक है और यह राज्य तथा उसके परिवार का प्रतीक है जो उसके उत्तराधिकारी को सुनिश्चित करता है। एक दूसरी मान्यता है कि इत्थी रत्न धरती तथा उसकी ऊर्बर उत्पादकता का पहलू है। एक और मत है कि यह खजाना ब्राह्मणवादी परम्परा में राजसूय समारोह के प्रभाव का प्रतिफल है। गहपति रत्न लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जो उस क्षेत्र में रहते हैं और यह प्रशासन, कर-व्यवस्था तथा उत्पादन को अपने में सम्मिलित करता है। परिनायक का अर्थ पाली भाषा में मार्गदर्शक, नेता या परामर्शदाता होता है। परिनायक से यह अपेक्षा रहती है वह बुद्धिमान और विद्वान होगा जो राजा की तरफ से सैनिक और नागरिक शक्तियों का प्रयोग करेगा। यह राजा की सैन्य शक्ति का प्रतीक है।
बुद्ध केवल नई राजनीतिक संस्थाओं के निर्माण करने और राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना के निर्देश नहीं देता। वास्तव में, व्यक्तियों व समाज में सुधार के लिए व समस्याओं के समाधान के लिए कुछ सामान्य सिद्धान्तों का दृष्टिकोण भी अपनाता है, जिसके माध्यम से समाज को अधिक से अधिक मानवतावाद की ओर, प्रजा के कल्याण हेतु और संसाधनों के अधिक व समान बंटवारे के लिए निर्देशित किया जा सकें।
बुद्ध ने एक उत्तम राजा के लिए परामर्श, तथा लोकतान्त्रिक भावना को प्रोत्साहित किया। जो यह प्रदर्शित करता है कि समुदाय के सभी मामलों पर निर्णय सभी सदस्यों के परामर्श से लिये जायेंगे। जब कोई महत्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित हो तो उस मुद्दे को भिक्षुओं के समक्ष रखा जायें और उसका समाधान लोकतान्त्रिक संसदीय प्रणाली द्वारा किया जाए।
बुद्ध के समकालीन काल में उत्तरी भारत के गंगा के मैदानी (समतलीय) क्षेत्र में दो प्रकार के शासन अस्तित्व में थे- गणराज्यीय तथा राजतंत्रीय, जो एक दूसरे की प्रतियोगिता में थे। गणराज्यीय शासन का मुख्य आधार बातचीत या बहस से सरकार चलाना था। संघ के सदस्य निर्वाचित नहीं होते, थे किंतु वे जनजाति के नामी-गिरामी लोग होते थे और अधिकांशतः वे क्षत्रिय की जगह कुलीनतंत्रीय थे हालाँकि सभी मामलों में संघ को अंतिम शक्ति प्राप्त थी।
बौद्धवादी, गणराज्यीय जनजातीय संघ का पालन कर रहे थे जो व्यक्तिगत शासक को नहीं स्वीकारते थे और वे एक साथ बहस करते थे, एक-साथ काम करते थे और सम्पत्ति के मामले में साम्यवाद आचरण में लाते थे। जनजातीय परिषद् उनके शासन का मुख्य अंग थे जो विधानसभा के निर्णय को बदलने की शक्ति रखते थे।
बौद्धवादी संघ लोकतंत्रीय बताये जाते थे क्योंकि वहाँ कोई राजा नहीं था। कोई अधिनायकवादी आदेश की कड़ी और उत्तरदायित्व नहीं था, और सबसे बढ़कर निर्णय लेने की निर्धारित प्रक्रिया थी जिसमें सभी को शामिल किया जाता था। संघ आज के आधुनिक लोकतंत्र से दो अर्थों में भिन्न थे- प्रथम, बुद्ध ने जोर दिया कि संघ के कार्य करने के लिये सर्वसहमति अनिवार्य होना चाहिये। द्वितीय, प्रत्येक स्थानीय संघ पूर्ण संघ का सूक्ष्म रूप होना चाहिये और यदि संघ की आन्तरिक कार्यप्रणाली में असहमति उभरे तो असहमत समूह को नये समाधान की ओर बढ़ना चाहिये और नये संघ का निर्माण करना चाहिए |
बौद्ध शासकों द्वारा शान्तिपूर्ण, सौहार्दपूर्ण समाज और गरीबी मुक्त समाज सुनिश्चित करने के लिए तथा आदर्श का पालन करने के लिए प्रारंभिक बुद्ध द्वारा एक बड़ी संख्या में रूपरेखा प्रस्तुत की गई। शासक के कर्त्तव्यों के विषयों में बौद्ध धर्म में अधिक विस्तार से चर्चा नहीं हुई, लेकिन उन्होंने सामान्यतः अहिंसात्मक सिद्धान्त को महत्व दिया, और शासक के लिए युद्ध और विद्रोह प्रोत्साहन की मनाही की है। बुद्ध ने अपने समय के कुछ आदिवासी गणराज्यों की प्रशंसा की। एक बार उन्होंने कहा था कि यदि लोग उसका साथ जारी रखें तो वाजियान गणराज्य पनप सकता है। इसके लिए उन्होंने कुछ नियम प्रस्तुत कियेः
- नियमित रूप से लगातार विधानसभाओं का आयोजन।
- सौहार्द व सद्भाव की स्थापना, अव्यवस्था की सामंजस्य से समाप्ति, सद्भावना पूर्ण व्यापार।
इस प्रकार बुद्ध ने सामुहिक निर्णय द्वारा परम्पराओं, बुर्जुगों, स्त्रियों, सन्तों, और धर्म इत्यादि को महत्व दिये जाने का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। इन सामाजिक सिद्धान्तों के महत्व द्वारा मठवादी संघ के समृद्ध रूपान्तरित संस्करण को सुनिश्चित करना था क्योंकि बुद्ध ने पाया कि नये विस्तृत राज्य विस्तार से आदिवासी गणराज्य का अन्त हो रहा था और वह कुछ संख्या में ही रह गये थे। उन्होंने पाया कि निरन्तर बढ़ते राज्यों में सैद्धान्तिक दर कम होती जा रही थी। और वह राज्यों द्वारा सिद्धान्तों के पालन की इच्छा रखते थे |
राजा अनैतिक और अधार्मिक कार्य करता है तो इससे उसकी जनता के विभिन्न समूहों के मध्य अनुचित उदाहरण प्रचारित होता है। जिससे सूर्य और चन्द्रमा, व सितारे अपनी दिशा के विपरीत चलने लगते है और दिन व रात, माह व पखवाड़े, मौसम और वर्ष अपनी संयुक्तता से अलग हो जाते है तथा हवा का प्रवाह-मौसम के विपरीत होने लगता है। जो इस बात का सूचक है कि देवगण नाराज है, जब वृक्ष देवता अपना गृह या स्थान छोड़ देते हैं, इन्द्र देवता आकाश से पर्याप्त वृष्टि नहीं करते, जमीन से अन्न उत्पादन कम होने लगता है और उन पर निर्भर मानवजाति कमजोर और अल्पकालिक हो जाती है | तब राजा का कर्त्तव्य है कि वह अपने कार्यों व प्रभाव के माध्यम से समाज और प्रकृति के प्रति अपने नैतिक आचरण की जिम्मेदारी को समझें।
इतिहास के इस काल में राजा और लोगों के बीच के सम्बन्ध में कमी आ रही थी और धम्म की सहायता से शक्ति को सत्ता में बदलकर इस कमी को पूरा किया। धम्मराजा के उभरने के पीछे एक दूसरा सन्दर्भ यह था कि जब राजा और लोगों के बीच सम्बन्धों में शिथिलता आने लगी, तो ब्राह्मण और क्षत्रिय के बीच नये रिश्ते शुरु होने लगे। दोनों के बीच कर्मकांड की जटिल प्रतिकृति उभरती है जहाँ राजा ब्राह्मणों पर अपनी सत्ता को वैध करने के लिये निर्भर हो जाता है। पवित्र ब्राह्मण पाठ के द्वारा ब्राह्मण सामाजिक श्रृंखला में ज्ञान के एकमात्र नियंत्रक का विशेषाधिकार प्राप्त कर लेता है।
बौद्ध शासक के एक महान उदाहरण के रूप में भारतीय सम्राट अशोक को विशेष सम्मान व प्रतिष्ठा प्राप्त है, क्योंकि उन्होंने चक्रवर्ती विचार अनुसार अपना शासन चलाने व उस पर खरा उतरने की कार्य प्रणाली अपनाई। जबकि उन्होंने कभी भी संघ की सलाह को नहीं स्वीकारा। संघ जनता द्वारा चयनित लोगों से बनता था। तथापि सम्राट अशोक द्वारा जनता को जो शासन उपलब्ध करवाया गया, वह अनैतिक नहीं था।
बौद्ध अवधारणा राज्य के प्रारंभिक अनुबन्धात्मक सिद्धान्त या सधन सिद्धान्त का प्रतिनिधित्व करती है जिसे काफी समय बाद पश्चिम में जॉन लॉक तथा जीन जैक्स रूसो द्वारा विकसित किया गया। शासन की बौद्ध अवधारणा उनके नैतिक और आध्यात्मिक विशेषताओं पर आधारित है जिसमें ब्राह्मणों व पुरोहितों के प्रतिष्ठापन के प्रश्न को त्याग दिया गया है।
निष्कर्ष – बुद्ध ने जनशक्ति का उपयोग करते समय एक शासक के नैतिक कर्त्तव्यों पर अत्याधिक जोर दिया ताकि लोगों के कल्याण को बेहतर किया जा सकें, जो सम्राट अशोक से प्रेरित थे। उन्होंने शानदार तरीके से अपनी प्रजा व मानवता के कल्याण के लिए धम्म प्रचार करने का संकल्प लिया था। उन्होंने अपने पड़ोसियों के प्रति अनाक्रमण की भावना व्यक्त की, शांतिस्थापना के लिए सूदूर राज्यों में अपने प्रतिनिधि भेजे ताकि शांति व अनाक्रमण का संदेश विश्वभर में प्रभावी साबित हो। उन्होंने सामाजिक- नैतिक गुणों की प्रथा को शक्शिाली रूप से बढ़ावा दिया, और सत्यता, दया, परोपकार, अहिंसा, सभी के प्रति विचारवान व्यवहार, फिजूलखर्ची न करने, अर्जनशील बनने पर जोर दिया तथा पशुओं को चोट न पहुंचाने का आग्रह किया। उन्होंने धार्मिक स्वतन्त्रता को प्रोत्साहन दिया और दूसरे सम्प्रदायों के प्रति आपसी सम्मान को बढ़ावा दिया। उन्होंने अपने आवधिक दौरों द्वारा ग्रामीण लोगों को धम्म का उपदेश दिया।
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