आपको किन तरीकों से लगता है कि कबीर के दार्शनिक सिद्धांत ‘सिंक्रीटिज्म’ (समन्वयवाद) के विचार का प्रतिनिधित्व करते हैं? विवेचना कीजिए |
प्रश्न. 9 – आपको किन तरीकों से लगता है कि कबीर के दार्शनिक सिद्धांत ‘सिंक्रीटिज्म’ (समन्वयवाद) के विचार का प्रतिनिधित्व करते हैं? विवेचना कीजिए |
उत्तर –
परिचय – कबीर के समय में हिन्दू तथा मुसलमानों में परस्पर धार्मिक संघर्ष चल रहा था। विजेता होने के कारण मुसलमान अपने धर्म को हिन्दुओं पर थोपना चाहते थे और वे बलपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बना रहे थे। हिन्दू अपने धर्म को मुसलिम धर्म से किसी भी प्रकार निम्न नहीं समझते थे, उन्हें अपने धर्म पर अभिमान था। इधर हिन्दू अपने धर्म को सनातन समझते थे और उधर मुसलमान अपने धर्म को श्रेष्ठतम । ऐसी स्थिति में धार्मिक असहिष्णुता का बढ़ता जाना स्वाभाविक ही था।
इस काल में आकर हिन्दुओं में वर्ण भावना यहाँ तक बढ़ी कि उच्च वर्ण वाले भिन्न वर्ग वालों से सम्बन्ध रखना अपमान समझते थे। इससे ऊंच-नीच की भावना बढ़ी और धीरे-धीरे अस्पृश्य जातियाँ भी बढ़ीं। ब्राह्मण वर्ग तो इन अस्पृश्य जातियों की अपने ऊपर छाया भी नहीं पड़ने देना चाहता था। उधर मुसलमानों में भी शेख, सैयद, मोमिन, पठान आदि वर्ग बन गये और वे भी एक-दूसरे को अलग समझने लग गये। सबसे बड़ी विचित्र बात यह है कि संघर्ष की स्थिति को कोई कम नहीं कर रहा था, इन वर्गों में निरन्तर ऐसे लोगों का जन्म हो रहा था जो अपने वर्ग को श्रेष्ठतम तथा श्रेयस्कर समझकर उसके प्रचार में लगे हुए थे। सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले नये नये ग्रन्थों का निर्माण करने में लगे थे और इन ग्रन्थों पर टीकाएँ तक लिखी जा रही थीं। इस प्रकार समग्र देश में एक वितण्डावाद से उत्तरोत्तर अज्ञान की वृद्धि और ज्ञान का हास होता जा रहा था, सत्य का पता लगाना एक दुष्कर कार्य बन गया था।
कबीर का सामाजिक समन्वय- कबीर ने देखा कि समाज में जो लोग उच्च जाति में जन्म लेते हैं, वे अपने को ऊंचा समझते हैं और निम्न जातियों को अवहेलना की दृष्टि से देखते हैं। कबीर ने इस ऊंच-नीच के भेद-भाव को बहुत ही बुरा बताया तथा इस प्रकार की भावना रखने वालों को बड़ी खरी खोटी सुनायी। कबीर की दृष्टि में ब्राह्मण के घर जन्म लेने वाले तथा अन्त्यज के घर जन्म लेने वाले में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है, दोनों की शरीर रचना में भी कोई भेद नहीं है।
समन्वयवादी कबीर –
पंद्रहवीं शताब्दी के राजनीतिक संघर्ष, धार्मिक कटुता, सामाजिक असमानता एवं आर्थिक विषमता वाले समाज में कबीर ने जीवन के व्यावहारिक स्तर पर अन्तर्विरोधों को मिटाने वाला समन्वयवादी दृष्टिकोण दिया। राजकीय सत्ता, आर्थिक सम्पन्नता, सामाजिक प्रतिष्ठा एवं धार्मिक रिवाजों को तुच्छ समझते हुए कबीर ने व्यक्ति को आत्मीय चेतना एवं आन्तरिक ब्रह्म को पहचानने के लिए प्रेरित किया, सांसारिक बंधनों, सत्ता-पद-धन की चकाचौंध को क्षणभंगुर दर्शाया और मानव को स्नेह-सहानुभूति-अपनत्व-बंधुत्व का संदेश दिया। यद्यपि कबीर संस्कृत रचित वेद-उपनिषद् तथा अरबी में लिखे कुरान को पढ़ने में असमर्थ थे, किंतु जीवन के अनुभव की किताब से पढ़कर वेदान्तिक दर्शन, प्रचलित रीति रिवाजों, पौराणिक अवतारों, नाथ सिद्ध सांकेतिकताओं, बौद्ध-सूफी परम्पराओं तथा इस्लामी मान्यताओं को बखूबी समझते थे।
धार्मिक एकता : कबीर कालीन समाज में एक ओर अनेकानेक शाखाओं एवं उपशाखाओं के साथ हिंदू धर्म था और दूसरी ओर आक्रांताओं एवं नवीन शासकों व सुलतानों के धर्म तथा प्रत्यावर्तित धर्म के रूप में इस्लाम था। दोनों तरफ से कोशिश की जाती थी अपने को श्रेष्ठ साबित करने और दूसरे को नीचा दिखाने की। धर्म ग्रथों के व्याख्याकारों, पंडितों-मौलवियों का कथन अंतिम माना जाने लगा था। धार्मिक रीति-रिवाजों ने रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों का रूप ले लिया था।
कबीर दोनों धर्मावलम्बियों के पाखण्डपूर्ण कृत्य देखकर असंतुष्ट थे। वे हिंदुओं की मूर्ति पूजा तथा मुसलमानों की नमाज; हिन्दुओं के मंदिर तथा मुसलमानों के मस्जिद; हिंदुओं के व्रत उपवास तथा मुसलमानों के रोजा; हिंदुओं की तीर्थ यात्रा तथा मुसलमानों के हज; हिंदुओं की माला तथा मुसलमानों की तसबी; हिंदुओं का उपनयन तथा मुसलमानों की सुन्नत; हिंदुओं की गायत्री मंत्र तथा मुसलमानों के कलमा; हिंदुओं के कैलाश तथा मुसलमानों के काबा हिन्दुओं के वेद पुराण तथा मुसलमानों के कुरान; हिंदुओं की आरती तथा मुसलमानों की अजान; हिंदुओं के स्वर्ग-नरक तथा मुसलमानों के बहिस्त-दोजख आदि सभी के विरोधी थे। (प्रह्लाद मौर्य, 120) कबीर का कहना था कि इन्हीं पाखंडों के कारण संकुचित सीमाओं में मनुष्य छोटा हो गया था। उसका एक दूसरे से व्यवहार टूट गया था और भेद की दीवारें खड़ी हो गई थी। इस बाह्य-संकुचित मानसिकता का विरोध करते हुए कबीर का आग्रह था कि वेद और कुरान झूठे नहीं है। झूठा वह है जिसमें उनके वास्तविक रहस्य का साक्षात्कार नहीं किया है (क.ग्र., पद 62)। वास्तविक समस्या इन ग्रथों की व्याख्या की है।
कबीर का दृढ़ विश्वास था कि परम तत्व एक है जिसने पृथ्वी बनाई है। धर्म भी मूलत: एक ही है और सबका साध्य भी एक ही है। भगवान तो एक ही है और हृदय में निवास करते हैं। उन्हें दिल या हृदय में खोजें तो वे वहीं मिलेंगे। उपासना के बाहरी स्वरूपों को मानने से ही मजहबी भेद पैदा होते हैं। कबीर का आग्रह था कि यदि पूजा या सेवा करनी है तो मनुष्य की सेवा करो। मनुष्य की सेवा से ही ईश्वर की सेवा संभव है। सभी मनुष्य जाति एक है और सबमें एक प्रकार की समानता भी है। कबीर इसी समानता के धरातल पर सबको लाना चाहते थे और आंतरिक शुद्धता एवं आत्म-चिंतन में वास्तविक ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करते थे।
सामाजिक समानता (Social Equality) : कबीर का समकालीन समाज अनेक जातियों एवं उपजातियों में बंटा हुआ था और इन जातियों में ऊंच-नीच, छुआ-छूत जैसी रूढ़ियाँ घर कर गई थी। ब्राह्मण, पुरोहित वर्ग समाज के ठेकेदार बन बैठे थे और नीची या निम्न समझी जाने वाली जातियों में से अनेक को अछूत समझा जाता था। यथा स्थिति बनाए रखने के लिए ब्राह्मणों ने जटिल अनुष्ठान एवं रिवाजों का जाल बुन दिया था।
इस जातिगत असमानता का विरोध करते हुए कबीर ने बारम्बार यह आग्रह किया कि ईश्वर ने सभी जातियों की सृष्टि एक ही रूप में की है। गर्भ से किसी की कुल या जाति नहीं होती। सबके शरीर एक ही तरह की रक्त, मज्जा, मांस और अस्थि से बने हैं। सब का जन्म एक ही रूप में माता के द्वारा होता है। और मृत्यु के बाद सब की गति भी एक ही समान होती है (क.ग्र., रमैणी, पृ. 468)। शूद्र का लहू गंदा और ब्राह्मण का लहु दूध समान नहीं होता। जन्म के आधार पर जाति का विचार गलत है। यदि जाति का संबंध जन्म से होता तो ब्राह्मण गर्भ से ही वेद पढ़ कर आता, गुरू के पास जाकर पढ़ने-सीखने की आवश्यकता नहीं रहती। कबीर ने जाति व्यवस्था के नाम पर ऊंच नीच के भेद और छुआछूत का पूर्ण खंडन किया। उनका कहना था कि भेदभाव भगवान के बनाए न होकर ब्राह्मणों के दिमाग की ऊपज है। वे देवी-देवता की पूजा के नाम पर जीव हत्या करते हैं और अपने को ऊंचा साबित करने के लिए रीति-रिवाजों का ढोल पीटते हैं।
कबीर सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए समाज सुधार चाहते थे, किंतु यह प्रक्रिया व्यक्ति से प्रारंभ करना चाहते थे। कबीर का मत था कि व्यक्ति ही समाज बनाता है, जबकि उस समय के लोग समाज बनाने की बजाए बिगाड़ रहे थे। इसका कारण यह था कि लोग आचार-विचार एवं व्यवहार में गिरे हुए थे। उनमें नैतिकता का पतन हो रहा था। सत्कर्म की प्रेरणा देते हुए कबीर का व्यक्ति को संदेश था कि विनम्रता और समाज में लोगों के साथ सद्व्यवहार जीवन की सबसे बड़ी साधना है।
कबीरः समन्वयवादी के रूप में
दूरदर्शी कबीर ने मानव जीवन की अन्तर्निहित एकता को चित्रित किया। कबीर की मान्यता थी कि सृष्टि का सृजन कर्ता “घट-घट में” (अर्थात हर व्यक्ति में), “सहज” रूप से व्याप्त है, जिसे एक “शब्द” में जाना जा सकता है। इस सर्वोच्च सत्य को, कबीर ने ‘निर्गुण ईश्वर’ के रूप में दर्शाया और आम व्यक्ति की समझ के लिए उसकी राम और कृष्ण के रूप में व्याख्या की।
कबीर के सामाजिक कवित्त, मनोवैज्ञानिक तर्क, जन्म-मृत्यु के आलेख, आध्यात्मिक-दार्शनिक-वैचारिक कविताएं अलग-अलग श्रेणियों-वर्गों को नहीं वरन् उस ईमानदार सैद्धांतिक एकता दर्शाते हैं जो कि देह, मस्तिष्क, व्यक्ति, मंदिर, बाजार-सब पर समान रूप से लागू होते हैं।
कबीर कहते हैं कि भगवान बीज रूप हैं और प्रकृति के सत्, रज, तम- ये तीनों गुण भी भिन्न-भिन्न नहीं है। वेद और बौद्ध दोनों कहते हैं कि एक ही वृक्ष है। सबका मूल वही एक चैतन्य है, उसी को वृक्ष कहा गया है। जीव को अपनी वासनाओं और कर्मों के अनुसार इस वृक्ष के अमृत और विष रूप फल लगते हैं |
कबीर समस्त सृष्टि में एक परमात्मा को देखते हैं, एक ही शक्ति को देखते हैं। उनका कहना है कि पवन, पानी, ज्योति, धरती और आकाश-इन पांच तत्वों में एक ही परम शक्ति समायी हुई है । उनका मानना है कि धर्म असीम है, अस्तित्व अखंड है, मनुष्य उसे खंड-खंड के रूप में अनुभव करता है क्योंकि उसके पास खंडित हृदय है। अखंड का अनुभव करने के लिए, अखंड या शून्य हृदय चाहिए, जिससे अखंड अथवा शुद्ध का दर्शन हो सके। कहा जा सकता है कि चेतना की तीन तरह की अनुभूतियां हैं। एक, जब आदमी परतंत्र अनुभव करता है (Dependent); दो, जब आदमी स्वतंत्र अनुभव करता है (Independent) और तीन, जब वह परस्पर निर्भर अनुभव करता है (Inter Dependent)। यह तीसरी अवस्था श्रेष्ठतम अवस्था है और यही कबीर के दर्शन का लक्ष्य भी है। इसको अध्यात्मिक महत्व के साथ-साथ इसका व्यावहारिक पक्ष भी है जो कबीर को प्रासंगिक बना देता है |
मनुष्य में पूर्णता एवं अनंत ऊर्जा की अनुभूति के लिए कबीर पांच महाव्रत -अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम एवं अप्रमाद की बात करते हैं।
- कबीर की दृष्टि में प्रेम से अहिंसा का जन्म होता है। परंतु सभी धर्म, मत या संप्रदाय, हिन्दु मुसलमान आदि जब अपने अनुयायिों की संख्या बढ़ाने की प्रतियोगिता शुरू करते हैं, तभी हिंसा का जन्म होता है।
- हिंसा का परिणाम है परिग्रह। दूसरों का मालिक होने का भाव परिग्रह कहलाता है और मालिक बनने के लिए इंसान ‘माया’ का गुलाम हो जाता है। कबीर ने बारम्बार धन, दौलत, महल, अटारी, बावड़ी की व्यर्थता सिद्ध करते हुए इनके प्रति आदमी की मोहग्रसता को तोड़ने का प्रयास किया है, ताकि अपरिग्रह का जन्म हो।
- परिग्रह की अवस्था में दूसरों की चीजें अपनी दिखाई पड़ने लगती है, इसे चोरी के समान मानते हुए कबीर अचौर्य-चोरी न करने का संदेश देते हैं।
- काम व्यक्ति को क्षीण, निर्बल, निस्तेज करता है और अपना आपा खो देता है। अतः कबीर व्यक्ति से ‘अकाम’ के महाव्रत की बात करते हैं, जिससे वासना को छोड़कर ऊर्जा का संचार हो सके और जिससे सुख-दुख का द्वंद्व शांत हो, मानव परमात्मा की प्रतीति का अनुभव कर सके।
अप्रमाद भीतरी जागरण एवं चेतना (Awareness) की स्थिति है, जो कि कबीर के अध्यात्म की यात्रा है। इसकी सात अवस्थाएं हैं:
- चेतन मन (Conscious),
- अचेतन (Unconscious),
- समष्टि अचेतन (Collective unconscious),
- ब्रह्म अचेतन (Casmic unconscious),
- अतिचेतन (Super Conscious),
- समष्टि चेतनता (Collective Conscious),
- ब्रह्म चेतन (Cosmic Conscious)
ऐसा प्रतीत होता है कि कबीर व्यक्ति के विवेक को जागृत कर उसे चेतनाशील बनाना चाहते थे, ताकि वह कमशः ब्रह्म की अनुभूति कर ब्रह्म-चेतना की ओर अग्रसर हो सके।कबीर का कहना है कि यदि मन इधर-उधर भटकता रहे, तो जागरण खो जाता है। इस दुलर्भ मानव जीवन को व्यर्थ न जाने दें। आंख खोलने और प्रकाश को पहचानने का अवसर न गंवाएं। कबीर कहते हैं कि यदि व्यक्ति जागता है तो पांचों इंद्रियाँ (मोह की प्रवृत्ति) सो जाती है। सारे भटकाव समाप्त हो जाते हैं, ब्रह्म ज्ञान की अनुभूति होती है और रामरतन धन प्राप्त हो जाता है।
कबीर कहते हैं कि काया के भीतर ‘शब्द’ (वाक्) के रूप में मौजूद ‘ब्रह्म’ ही परम है। जिस किसी ने माया से पार पा लिया, वह इस शब्द को हासिल कर लेता है। इस दृष्टि से कबीर भी सचेतन एवं जागृत व्यक्ति (Enlightened Individual) की बात करते हैं। तीर्थ या हज के स्थान पर, आंतरिक दीपक को जला कर, अन्तर्मन में विद्यमान परम ब्रह्म को पहचानने का संदेश देते है। यही कबीर के समन्वयवाद (Syncretism) का सार है जोकि व्यक्ति को सद्गुणों की ओर अग्रसर करता है और उन्हें पाने के लिए सतगुरु और सत्संग के आश्रय को अनिवार्य मानता है।
कबीर को समन्यवादी न मानते हुए सिंह एवं हैस का कहना है कि कबीर ने देश की दोनों प्रमुख धार्मिक परम्पराओं से स्वयं को मुक्त घोषित किया। दोनों की रूढ़ियों पर प्रहार किया और अपने अनुयायियों को पूर्ण स्वायत्ता एवं दृढ़ता के साथ उनका विरोध करने के लिए प्रेरित किया। लेकिन वास्तविकता यह है कि कबीर ने दोनों प्रमुख धर्मों की रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों का विरोध किया था। सभी धर्मों का निचोड़ एक ही मानते हुए कबीर का संदेश था कि:
पूरब दिसा हरी का बासा, पश्चिम अलह मुकामा। दिल ही खोजि दिलै दिल भीतरि, इहां राम रहिमांना॥ जे ति औरति मरदां कहिये, सब मैं रूप तुम्हारा। कबीर पंगुडा अलह राम का, हरि गुंर परि हमारा॥
अर्थात् हिंदुओं की दृष्टि में पूर्व दिशा में भगवान का निवास है और मुसलमानों के मत में अल्लाह का स्थान पश्चिम दिशा में है। हे मानव, तुम अपने हृदय को ही ढूँढों। वही पर तुम्हें राम और रहीम दोनों मिल जाएंगे। जितने स्त्री पुरुष हैं, उन सबमें भगवान का ही रूप विद्यमान है। कबीर तो अल्लाह और राम दोनों का ही दास हैं, उन्हीं पर आश्रित है। हरि उसके गुरु और पीर दोनों ही है। उसने इन दोनों में अभेद के ही दर्शन किये है।
कबीर को ‘समन्वयवादी’ (syncretist) न मानकर, एकात्मवादी (monistic) मानते हुए बलदेव वंशी का कहना है कि कबीर का सारा आग्रह धर्म, मजहब के बाहरी प्रतीकों की अपेक्षा आत्म-शुद्धि और आचरण शुद्धि पर है। मोटे तौर पर, जैसे पहने हुए बाहरी वस्त्रों की भिन्नता-कपड़े की, रंगों की, या डिजाइन की, आकार प्रकार की भिन्नता-कई प्रकार की है, किंतु उन पहने हुए कपड़ो की भिन्नता के नीचे चमड़ी का भिन्नताएं अपेक्षतया कम होती है। चमड़ी के नीचे, देह के भीतर मानसिक वृत्तियों में, चमड़ी की भिन्नता से कम भिन्नता होगी। रोना, हंसना, प्यार, घृणा के मूल भावों में सब एक समान है, उन्हें प्रकट करने के हाव-भाव, स्थान-स्थिति की भिन्नता से पृथक् हो सकते हैं और अंततः आत्मिक स्तर पर सब एक अभिन्न धरातल पर आ खड़े होते हैं। इसी आंतरिक धरातल पर चारित्रिक शुद्धि पर बल देने से जातीय, मजहबी विभिन्नताएं समाप्त हो जाती हैं।
कबीर भी जातीय मजहबी ऊंच-नीच कट्टरता का पूर्ण विरोध करते हुए, बलदेव वंशी की दृष्टि में, मतवादों में समन्वय लाने का प्रयत्न नहीं करते, वरन् मानव की आत्मवादी धरातल पर एकता या एकात्मा सिद्ध करते हैं। उनका विश्वास समझौतों में नहीं, एकता में है। वे मनुष्य को भी सहज एवं महज मनुष्य के रूप में देखना पसंद करते हैं और इंसानी रिश्तों का सूत्र ‘निरंजन’ या ‘अलह’ से बनाना चाहते हैं।
कबीर समाज को एकात्म रूप में देखते हैं। कबीर के समाज में अनेक प्रकार के भेद थे और वे इन भेदों को मिटाना चाहते थे। वस्तुत : इन भेदों का कोई स्थायित्व नहीं था। सारे भेद क्षणभंगुर के समान थे। ऊंच-नीच, धनी-निर्धन, स्वामी-सेवक, राजा-रंक सभी भेद तात्कालिक थे। इन भेदों को बनाने वाले और मानने वाले अपने समय की सीमा में जीकर मर गए। परंतु कबीर की दृष्टि में मानवता, समाज, आत्मा, जीव की स्थिति अमर है।
निष्कर्ष – यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भिन्न-भिन्न एवं परस्पर विरोधी विचारों का सम्मिश्रण समन्वयवाद का आधार है। इस दृष्टि से कबीर ने राजा-प्रजा, धनी-निर्धन, ऊंची-नीची जातियों, हिन्दुओं-मुसलमानों के बीच की खाई को पाटने का प्रयास किया। आपस के द्वेष, ईर्ष्या, अहंकार, वैमनस्य, क्षोभ आदि के स्थान पर कबीर ने समानता, स्नेह, सहानुभूति, सहयोग का संदेश दिया और मानव-मात्र को एक दूसरे के लिए जीने का रास्ता दिखाया, उस दृष्टि से कबीर एक समन्वयवादी विचारक के रूप में उभरते हैं।
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