अबुल फजल के राजसत्ता के सिद्धांत पर एक निबंध लिखिए |
प्रश्न. 4 – अबुल फजल के राजसत्ता के सिद्धांत पर एक निबंध लिखिए |
अथवा
अबुल फजल की आइन-इ-अकबरी में संप्रभुता की अवधारणा का परीक्षण कीजिए । किस सीमा तक यह ‘बादशाहत‘ के दैवीय सिद्धांत का समर्थन करता है ? अपना मत स्पष्ट कीजिए।
उत्तर –
परिचय – अबुल फज्ल की ‘अकबरनामा‘ तथा ‘आइने-अकबरी’ अकबर के समय की राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था की जानकारी प्रदान करती है, अपनी पुस्तक ‘अकबरनामा’ में अबुल फ़ज़ल ने राज्य की वैधता को समझाया है और अकबर का वफादार वज़ीर होने के नाते यही प्रयास किया है जिससे अकबर के कारनामों को वैद्यता प्राप्त हो सके। क्योंकि अकबर की सल्तनत से ही उसका गहरा निजी संबंध था। ‘अकबरनामा’ और ‘आइने-अकबरी’ में उन्होंने अकबर की महानता को एक ठोस रूप दिया। अबुल फज्ल को छोड़कर उस दौर का कोई भी इतिहासकार अपने लेखन के प्रति एक बुद्धिसंगत और धर्म निरपेक्ष दृष्टि अपनाने और तथ्य-संग्रह के लिए नई पद्धति का प्रयोग करने और आलोचनात्मक पड़ताल के आधार पर उन्हें प्रस्तुत करने का दावा नहीं कर सकता।
अबुल फज्ल का राजसत्ता (बादशाहत) का सिद्धांत
मुगल शासन व्यवस्था में बादशाह का स्थान केन्द्रीय व सर्वोच्च था। इसी कारण मुगल साम्राज्य केन्द्रीकृत अधिकारी-तंत्र कायम कर पाया।बाबर द्वारा स्थापित राज्य प्रभुसत्ता के तुर्क-मंगोल सिद्धांत पर आधारित था जिसका विकास मध्यवर्ती एशिया में हुआ था। बाबर से पहले के दिल्ली के मुस्लिम शासक ‘सुलतान’ कहलाते थे, जो एक तुर्की पदवी थी, परंतु बाबर ने ‘बादशाह’ की पदवी धारण की, जिसे उसके पश्चातवर्ती मुगल बादशाहों ने भी धारण किया।
राज्य विषयक मुगल सिद्धात की केन्द्रीय धुरी बादशाहत (राजत्व) जिन विचारों पर आधारित थी वे इस्लामी, मंगोल, तुर्की, ईरानी और भारतीय राजनीतिक परंपराओं का मिश्रण थे। अंत में जो स्वरूप उभरा वह हुमायूं और अकबर के शासन में व्यवहारिक हुआ और अबुल फज्ल के बादशाहत के सिद्धांत में स्पष्ट हुआ। इनके अनुसार ‘बादशाहत’ खुदा से निकलने वाली रोशनी (फर्र-ए-इज़्दी) है जिसे खुद ख़ुदा ने ही पृथ्वी पर भेजा है।
एक आदर्श बादशाह ख़ुदा की परछाई होता है जो चरम और अविभाज्य शक्ति का उपयोग करते हुए अपने अधीनस्थ राज्य या इलाकों में ‘एक नियम एक नियामक, एक मार्गदर्शक, एक लक्ष्य और एक विचार’ के अनुसार अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करता है। बादशाह को चाहिए कि वह अपने आप को अपनी प्रजा का पिता समझे और उसकी सुख-सुविधा का ध्यान रखते हुए प्रजा-पालक बने। साथ ही अबुल फज्ल ने स्पष्ट मत व्यक्त किया है कि किसी बादशाह में सभी उत्कृष्ट गुण मिलने के बावजूद यदि वह सभी धर्म और संप्रदायों के मानने वालों के पक्ष में समान दृष्टिकोण न अपनाए तो वह बादशाहत की ‘उच्च गरिमा’ को धारण करने का अधिकारी नहीं माना जा सकता। पादशाहत (बादशाही) की व्याख्या करते हुए अबुल फज्ल ने स्पष्ट किया है कि ‘पाद’ शब्द का अर्थ है स्थायित्व और स्वामित्व तथा ‘शाह’ शब्द का अर्थ है मूल और स्वामी। अतः बादशाह का अर्थ है ऐसा शक्तिशाली स्वामी या राजा जिसे कोई अपदस्थ नहीं कर सकता।
बादशाह की संप्रभु की अवधारणा वस्तुत : अत्यधिक केन्द्रीकृत व निरंकुश राजतंत्र की अवधारणा थी। प्रशासन का कोई विभाग उसकी दृष्टि से अंजान नहीं था | शासन की समस्त गतिविधियाँ बादशाह द्वारा संचालित की जाती थी। राजघराने के तमाम मामलों से लेकर वित्त और प्रांतीय प्रशासन, संचार व्यवस्था, कृषि, व्यापार, उद्योग, वाणिज्य, शिक्षा व विद्वानों को प्रोत्साहन तक सभी बातों पर बादशाह स्वयं निर्णय लेते थे। सैद्धांतिक रूप से सम्राट की सत्ता के एकाधिकार पर एकमात्र सीमा शरीअत की ही हो सकती थी परंतु अकबर ने स्वयं को इस क्षेत्र में भी सर्वोच्च घोषित कर दिया था।
कुरान का कानून किसी भी प्रकार से बादशाह पर बाध्यकारी शक्ति के रूप में लागू नहीं हुआ था। अकबर को ‘इमाम-ए-आदिल’ की पदवी के साथ धर्म-संबंधी विवादों के मामले में अंतिम निर्णायक और वैचारिक रूप से उच्चतम पद भी मिल गया था। इस प्रकार अबुल फ़ज़्ल के समय में सर्वोच्च शासक के रूप में बादशाह विशेषधिकारों के साथ-साथ एक एकांतिक अधिकारों का स्वामी भी बन गया था।
फजल राजा को ईश्वर की रोशनी मानते हैं और इसलिये वह केवल ईश्वरीय कानून की परिधि में ही आबद्ध हैं, मानवीय कानून से वह ऊपर है। फजल का मानना है कि जब ईश्वर किसी पर अपनी कृपा की बौछार करता है, तो उसे संप्रभुता प्रदान करता है और इसके साथ उसे बुद्धि, धैर्य, दूरदर्शिता और न्यायप्रियता भी देता है ताकि वह जनहित में कार्य करे और परिचित मित्रों और अजनबियों के बीच सन्तुलन स्थापित कर सके। उनके साथ एक सा ही बर्ताव करे ताकि यह न लगे कि उसमें प्रतिशोध की भावना और पूर्वाग्रह है।
आइने अकबरी के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि अकबर के समय में भी सत्ता केन्द्रीकृत ही थी, लेकिन राजा का सामाजिक व्यवस्था में कोई खास दखल नहीं था। अकबर के समय मनसबदारी व्यवस्था थी, जो कि फारस की नकल पर थी, लेकिन ग्रामीण व्यवस्था में न्याय प्राय: पंचायतों द्वारा ही किया जाता था और केन्द्रीय सत्ता का इस पर कोई विशेष प्रभाव प्रतीत नहीं होता। भू-व्यवस्था के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि चाहे सिद्धान्त में खेती की जमीन राजा की थी, लेकिन व्यवहार में जमीन का जोतने वाला ही उसका स्वामी था। हाँ, निर्धारित राजस्व जरूरं उसे देना पड़ता था। विकेन्द्रित सत्ता होने के कारण राजनीति, शहरों, बड़े कस्बों एवं कुछ प्रमुख घरानों तक ही सीमित थी, राज्य का कार्य प्राय: कानून और व्यवस्था तक ही सीमित था। आध्यात्म के क्षेत्र में उसकी दखल नहीं थी ! तुलसीदास की रामायण में इसकी स्पष्ट झलक देखने को मिलती है।
अबुल फजल लिखते हैं कि राजा को मिलने वाला कर एक प्रकार से उसका वेतन है, जो जनता पर सुशासन करने और न्याय करने के एवज में मिलता है। यहाँ अनुबन्ध सिद्धान्त की झलक अवश्य मिलती है, लेकिन यह फजल का मन्तव्य संभवतः नहीं था। वह दैविक सिद्धान्त के प्रतिपादक भी नहीं हैं। जब वह कहते हैं कि राजा पृथ्वी पर ईश्वर की रोशनी है, इसका मतलब यह नहीं है कि ईश्वर ने प्रजा पर शासन करने के लिए उसका निर्माण किया है। इसका मतलब केवल यही है कि ईश्वर की भांति उसमें दया, करुणा, सहिष्णुता एवं न्याय करने की भावना होनी चाहिये। ईश्वर की कृपा से ही उसे यह पद प्राप्त होता है।
यह बात सही है कि फजल अकबर के व्यक्तित्व के आधार पर ही राजा के पद की आवश्यकता और उसमें निहित गुणों का वर्णन करते हैं। उनके अनुसार राजा का पद अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना समाज के परस्पर विरोधी तत्त्व एक-दूसरे को नष्ट करने के लिए संघर्षरत रहेंगे। अत: उसका कर्तव्य है कि वह इन तत्त्वों को नियंत्रण में रखकर समाज में शांति और व्यवस्था की स्थापना करे। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वह निरंकुश बनकर राजसत्ता के माध्यम से अपनी वासना की तृप्ति करे और सत्ता सुख में मदान्ध हो जाये। उसका मुख्य कार्य जनता की भलाई करना है। राजा को न्यायप्रिय, बुद्धिमान, बहादुर और आकर्षक व्यक्तित्व वाला होना चाहिये। उसमें सहिष्णुता, खुला दिमाग और न्याय करने की क्षमता होनी चाहिये। फजल को ये सारे गुण अकबर में मिले।
दैवीय सिद्धांत का समर्थन –
अबुल फ़ज़ल के अनुसार अल्लाह की नजर में राजशाही से बढ़कर कोई गरिमा नहीं और जो इसका अधिकारी होता है उस पर अल्लाह का नूर बरसता है। इस धरती पर होने वाले खून खराबे व क्रान्तियों का उपचार केवल राजशाही है। अधिकार व स्थायित्व से इसका उद्भव हुआ है यदि राजशाही न हो तो इस जहाँ में होने वाले संघर्ष व तूफानों को रोकना मुश्किल है। इसके बिना मानवजाति अराजकता तथा कामुकता में जीने को विवश हो जाए और अंधकार व निराशा की. खाई में विश्व समा जाए। राजशाही के अभाव में यह वृहद् बाजार व्यवस्था अपना वैभव और समृद्धि खो दे, तथा यह धरती बंजर हो जाए। क्योंकि राजशाही का अस्तित्व है इसलिए धरती खुश मिज़ाज है, लोग आज्ञाकारी है और दण्ड के भय से लोग बुरे काम करने से घबराते हैं।
चुंकि राजशाही धरती पर अल्लाह द्वारा भेजी गई रोशनी है, इसलिए यही संपूर्णता की कुंजी है और हर तरह के ज्ञान का पात्र ‘बादशाह’ है। आधुनिक भाषा में राजशाही के इस नूर को ‘फ़र्र-ए-इज़्दी’ (पवित्र नूर) और पुरातन भाषा में इसे क्रियान खुश (लोकोत्तर महान प्रभा-मण्डल) कहा गया है। और अल्लाह ने यह नूर बिना किसी मध्यस्थ के इसे प्रत्यक्ष रूप से बादशाह को बख्शा है, इस नूर के साथ ही कुछ महान गुण भी उतरे हैं जो इस प्रकार है –
- जनता के प्रति पितृत्व प्रेम : साम्प्रदायिक मतभेदों के बावजूद भी राज्य में संघर्ष न हो इसके लिए जरूरी है कि बादशाह जनता को पिता के समान प्रेम करे। उसकी बुद्धि उसके युग की जन इच्छाओं व लालसा को समझे और अपनी योजनाओं को उसी के अनुरूप ढाल दें।
- एक विशाल हृदय : किसी प्रकार की असम्मति उसे भ्रमित या निराश ना करे। हौंसले से वह अपने कार्य करे, अच्छे काम करने वालों को पुरस्कार व प्रोत्साहन तथा बुरे काम करने वालों को दण्ड दे। अमीर व गरीब, की इच्छाओं की पूर्ति हेतु वह प्रयासरत रहे। अपने कार्यों में शीघ्रता से प्रयास करे आज का काम कल पर न टाले। और बादशाह के हाथों किसी का अहित न हो।
- अल्लाह में अटूट विश्वास : जब वह कोई कार्य करे तो अल्लाह को ही वास्तविक कर्ता माने और स्वयं को माध्यम। तब राज्य में होने वाले कार्य अच्छे मकसद से ही होंगे और मतभेद व समस्याएँ उत्पन्न नहीं होगी।
- दुआएँ और समर्पण : अपनी सफलताओं में अल्लाह को वो न भूले। मानवीय भावनाओं में खोकर अपना समय बर्बाद न करे। बुद्धि और विवेक को सम्मान व श्रद्धा की दृष्टि से देखे। न्याय करते समय स्वयं को अपराधी की जगह रखकर सोचे और तब न्याय करे। और न्याययाची को न-उम्मीद न होने दे। वह सृजनकर्ता की आज्ञाओं का पालन करते हुए लोगों के जीवन को खुशियों से भरता रहे। किन्तु उसका न्याय विवेक पर आधारित हो। कुतर्क करने वालों की गलती क्षमा ना करे। वह हमेशा सत्यवादी लोगों को खोजे और चापलूसों से बचें। हिंसा व असंतोष को राज्य में न पनपने दे और ध्यान रखे कि उसके राज में किसी के साथ अन्याय न हो।
अबुल फज्ल की आलोचना
फजल की कट्टर मुस्लिम समुदाय ने कड़ी आलोचना की। उन्हें नास्तिक, अधार्मिक एवं मुस्लिम विरोधी तक कहा गया। उसके कई समकालीन लोगों ने उसकी कड़े शब्दों में भर्त्सना की। खान-ए-आजम ने तो यहाँ तक कह दिया कि फजल ने पैगम्बर के विरुद्ध ही बगावत कर दी। उनके बारे में जहाँगीर ने भी इस बात का समर्थन किया है और यही एक बड़ा कारण रहा हो, जिसकी वजह से उसके इशारे पर फजल की हत्या की गयी। उनके बारे में कहा गया कि वह अग्नि पूजक हिन्दू है। फजल ने स्वयं आइने अकबरी में अपने विरोधियों द्वारा उनकी की गयी भर्त्सना का वर्णन किया है।
लेकिन फजल बड़े साहस और निर्भीकता के साथ अपने विचारों पर डटे रहे और पुरातन पंथियों और परम्परावादियों की आलोचना करते रहे। फजल ने बताया कि जो चीज विदेक सम्मत नहीं है, उसको स्वीकार कैसे किया जा सकता है। कालान्तर में पुस्तकों में लिखी बात पुरानी पड़ जाती है और इसलिए उन्हें स्वीकार करने के पूर्व उन पर विचार करना आवश्यक है। यद्यपि वह स्वयं धार्मिक पुरुष थे, लेकिन धर्म को उन्होंने कभी कट्टरपन और संकीर्णता से नहीं जोड़ा। जो मनुष्य को अन्धकार से प्रकाश की ओर नहीं ले जाये वह धर्म हो ही नहीं सकता। विवेक और तर्क का कहीं धर्म से विरोध नहीं है।
निष्कर्ष – इस प्रकार अबुल फज्ल के विचारों में धर्मनिरपेक्षता की झलक होते हुए भी धर्म (इस्लाम) पर आधारित राज्य की संकल्पना काफी मजबूत है। साथ ही उनके विचारों में एक व्यक्ति पर आधारित एक निरंकुश राजतंत्र की संकल्पना से इन्कार नहीं किया जा सकता जिसमें अकबर के पास राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक हर क्षेत्र में अन्तिम अधिकार और सत्ता है। इसीलिए हम कह सकते हैं कि अबुल फज्ल का विचार इंग्लैण्ड के राजतंत्र से भिन्न है, जहां व्यक्ति नहीं ताज प्रधान है क्योंकि व्यक्ति मर जाता है परन्तु ताज फिर भी जीवित रहता है; किन्तु अबुल फ़ज़्ल के विचारों में ताज से अधिक व्यक्ति अर्थात् अकबर महत्वपूर्ण था। हालांकि धर्म निरपेक्षता का उनका विचार और हिंदुओं की प्राचीन दार्शनिक-धार्मिक प्रणालियों, उनके रीति रिवाजों और रहन-सहन में उनकी दिलचस्पी के विषय भी महत्वपूर्ण है। अलबरूनी के पश्चात हिंदू धर्म और समाज को एक समुचित परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। जब अबुल फज्ल रूढ़िवादी इस्लामिक या हिंदू विचारों की आलोचना करते हैं और नए विवेकसंगत विचारों का समर्थन करते हैं, तब आधुनिकीकरण व पुनरूत्थानवाद की झलक उनमें नजर आती है, जो सुधारवादी नजरिये की प्रतीक है। इस प्रकार अबुल फज्ल के विचार हांलाकि अकबर की तरफ झुके हुए हैं, किन्तु फिर भी बुद्धिवाद, धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता, आधुनिकता तथा सुधारवाद भी उनके विचारों में शामिल रहा है, जो हमें उनका अध्ययन करने तथा राजनीति विज्ञान में एक विशेष स्थान देने की प्रेरणा देते हैं।
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